शहर में गूंजे बस झूठ ही झूठ, अब तो ये सारा जमाना ही झूठा लागे सच कही छुप कर बैठा हैं शायद जो सबकी आवाजो से कुछ रुठा वो लागे । बढ़ रही बेमानिया, बुराई का अब क्या मैं कहू अन्याय देखती खामोशिया, बिन बोले अब कैसे मैं रहू ईमान कही डर कर बैंठा हैं शायद, जो सबको दिलो से आवारा भटक कर वो भागे । कोई पैमाना ला देता सच का तो नाप लेता कि कहा कहा गलत हैं हम, या कोई दिखा देता रास्ता सही का तो जान लेता किस मोड़ पे सच से मिलेंगे हम । ये सारा जीवन हैं झूठा, या मृत्यु आखिरी सच ये सारी रात हैं झूठी, या सुबह दूसरा सच सो गये सब अपने झूठे ख्वाबो में शायद जो आखिरी सच को जानने के लिये भला अब कौन जागे?