आतंकवादी बुरहान वानी की 8 जुलाई को मुठभेड़ में हुई मौत से घाटी वापिस सुलग उठी है। पहले वानी के जनाज़े में हजारों की भीड़ जुटी, फिर मातम के बहाने उपद्रव का दौर शुरू हो गया। घाटी में पाकिस्तान और आई.एस. के समर्थन में नारे लगे और इन दोनों के इस्लामी झंडे लहराए गए। सेकुलरिस्टों और मोदी विरोधियों को यह कहने का अवसर मिल गया है कि यह सब भाजपा के हिंदुवादी नीति की प्रतिक्रिया है या लोगों में भाजपा-पीडीपी सरकार के कुशासन का विरोध है। कुछ ने यह भी तर्क दिया कि घाटी में बढ़ती बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ यह युवाओं का संघर्ष है। कई बुद्धिजीवियों ने इसे आज़ादी की लड़ाई और मानवाधिकार हनन के विरोध के प्रतीक के रुप में प्रस्तुत किया।

यह सब तर्क कितने तथ्यसंगत है ? क्या जिन्हे आजादी चाहिए या जो विकास की इच्छा रखते है, वह पाकिस्तान या आई.एस. को अपना आदर्श मानेंगे ? क्या यह दोनों किसी तरह से भी विकास, आर्थिक प्रगति, मानवाधिकारों की रक्षा या व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रतीक है ?

अंग्रेजी की एक कहावत, जितनी चीजे बदलती है, उतनी वैसी की वैसी रहती है, घाटी के परिपेक्ष्य में बहुत सटीक है। मैं पाठकों को वर्ष 1931 की घटना का स्मरण कराना चाहता हूं। इसी कालखंड में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने वाले शेख अब्दुल्ला ने घाटी में सांप्रदायिकता के बीज बोने की शुरूआत की। वह महाराजा हरि सिंह को मुस्लिम विरोधी बताते थे। नौकरियों में मुस्लिमों को प्राथमिकता देने की मांग करते थे। वस्तुत: शेख अ.मु.वि. के उस वातावरण से आए थे, जो अलगाववाद और सांप्रदायिकता से विषाक्त था, जिसने अंततोगत्वा पाकिस्तान के निर्माण में महती भूमिका निभाई। अप्रैल 1931 में पोस्टर चिपकाने के अपराध में पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को छुड़ाने वाली भीड़ को श्रीनगर में शेख अब्दुल्ला ने संबोधित किया, तो घाटी में मजबही उन्माद फैलना शुरू हो गया। 13 जुलाई 1931 को श्रीनगर जेल के बाहर रियासती पुलिस की गोली से कुछ लोग मारे गए। तब शेख और उनके मुस्लिम समर्थकों ने महाराजा की सेना को अत्याचारी और मुस्लिम विरोधी बताया। क्या आज लोकतांत्रिक सरकार और सेना पर ऐसे ही झूठे आरोप नहीं लगते ?

एक आम हिंदू की तरह महाराजा हरि सिंह भी ‘सेकुलर’ थे। उन्होंने वर्ष 1925 को जम्मू-कश्मीर का राजकाज संभालते हुए कहा था, ‘मैं जन्म से हिंदू हूं, लेकिन मेरा एकमात्र धर्म न्याय है और मैं उसी के अनुसार शासन का संचालन करुंगा’। अपनी आत्मकथा ‘आतिश-ए-चिनार’ में शेख अब्दुल्ला ने भी माना है, ‘महाराजा सदैव ही मजहबी विद्वेष से ऊपर थे और वह अपने कई मुस्लिम दरबारियों के निकट थे।’ (पृष्ठ-91) 9 जुलाई 1931 को महाराजा ने कहा था, ‘जम्मू-कश्मीर रियासत के हर व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता है।’ किसी भी विशेष समुदाय या श्रेणी के व्यक्ति को सरकारी पदों पर अनुचित लाभ नहीं दिया जाएगा। क्या आज दिल्ली में बैठी राजग सरकार फिर से वही भाषा नहीं बोल रही है ?

सन 1931 में लंदन में एक गोलमेज सम्मेलन हुआ। जिसमें महाराजा हरि सिंह ‘चैंबर ऑफ प्रिंसेज’ के अध्यक्ष के रूप में भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में खड़े हो गए। महाराजा तबसे अंग्रेजों की आंख में चुभने लगे। यह विडंबना ही है कि महाराजा हरि सिंह को अंग्रेज और पं.नेहरु, दोनों ही अपना शत्रु मानते थे।

वर्ष 1946 में शेख अब्दुल्ला ने महाराजा हरि सिंह के खिलाफ ‘कश्मीर छोड़ो आंदोलन’ शुरू कर दिया। शेख और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया। सरदार पटेल के विरोध के बावजूद नेहरू ने महाराजा को पत्र लिखकर शेख को रिहा करने की मांग की और जम्मू-कश्मीर जाकर शेख के समर्थन में मुकदमा लड़ने की घोषणा कर दी। महाराजा ने उनके रियासत में प्रवेश करने पर पाबंदी लगा दी। प्रतिबंध के बावजूद श्रीनगर जाने की कोशिश कर रहे पं.नेहरू को गिरफ्तार कर लिया गया। पं.नेहरू की यह वही झुंझलाहट और जिद थी, जिसने देश की सुरक्षा को हाशिए पर पहुंचा दिया।

14 अगस्त 1947 को देश का रक्तरंजित विभाजन हो गया। कश्मीर को पाकिस्तान ने लड़ाई के रास्ते हथियाना चाहा। स्वतंत्रता के दो माह पश्चात 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान ने कबाइली सेना का गठन कर जम्मू-कश्मीर पर हमला कर दिया। रियासत की सेना का नेतृत्व ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह कर रहे थे। उन्होंने उड़ी के पास अंतिम गोली, अंतिम जवान तक शत्रु का मुकाबला किया और वीरगति को प्राप्त हुए। भारतीय सेना का सर्वोच्च शौर्य सैन्य सम्मान किसी भारतीय सैनिक को न देकर शहीद राजिंदर सिंह मरणोपरांत दिया गया।

जैसा की पहले कहा जा चुका है कि महाराजा हरि सिंह एक आम हिंदू की भांति सेकुलर थे। इसी कारण उनकी सेना में हिंदू-सिख के अतिरिक्त बड़ी संख्या मुस्लिमों की भी थी। उन्हे सूचना मिली कि उनके मुस्लिम सैनिकों की वफादारी संदिग्ध है। अनेक स्थानों पर मुसलमान सैनिक अपनी वर्दी से गद्दारी करते हुए मजहब के नाम पर शत्रुओं से जा मिले। पाकिस्तान के हमले में लेफ्टिनेंट कर्नल नारायण सिंह के साथ हुई घटना हृदय-विदारक तो है ही, साथ ही हमे कश्मीर समस्या को समझने में भी सहायता करता है। लेफ्टिनेंट कर्नल नारायण सिंह 4JAK के कमांडिंग अधिकारी थे और उनकी कंपनी में डोगरा और मुस्लिम सैनिकों की संख्या लगभग बराबर थी। श्रीनगर से नारायण सिंह को संदेश दिया गया कि वह अपने मुस्लिम सैनिकों और अधिकारियों पर भरोसा न करे और चतुराई से उनके हथियार छीन ले। परंतु लेफ्टिनेंट कर्नल को अपने मुस्लिम सैनिकों की वफादारी पर इतना भरोसा था कि उन्होंने न केवल उस संदेश की उपेक्षा की, बल्कि उसका उपहास भी किया। श्रीनगर से मिली सूचना सत्य निकली। रात के अंधेरे मंे लेफ्टिनेंट कर्नल नारायण सिंह और अन्य हिंदू अधिकारियों की हत्या कर और उनके हथियार लूटकर, मुस्लिम सैनिक शत्रुओं से मिल गए। यदि आज घाटी में पाकिस्तान समर्थक नारे लगाए या उसका झंडा फहराए जाए, तो उसमें आश्चर्य कैसा ?

परंतु हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा। अपने अदूरदर्शिता के कारण पं.नेहरु ने कश्मीर के भारत में विलय के बाद देशभक्त महाराजा हरि सिंह को अपदस्थ कर देश निकाला दे दिया और पूरी सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंप दी। अंततोगत्वा, नेहरु जी को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने वर्ष 1953 में शेख को गिरफ्तार कर उन्हे जेल में डाल दिया। क्या महाराजा हरि सिंह का शेख अब्दुल्ला के बारे में आकलन सही सिद्ध नहीं हुआ ?

कश्मीर को लेकर यह कहावत ‘लम्हों ने खता की, सदियों ने सजा पाई’ चरितार्थ होती है। महाराजा हरि सिंह जैसे देशभक्त को देश निकाला और घोर सांप्रदायिक शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंपना, बढ़ती सेना को बिना पूरे कश्मीर को मुक्त कराएं युद्धविराम की घोषणा करना, मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाना, अनुच्छेद 370 लागू करना, यह उस सफर के मील के पत्थर है, जिसने कश्मीर को इस दुखद स्थिति में पहुंचाया है।

यदि कश्मीर समस्या का निदान करना है, तो हम इन निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर ढूंढना होगा। पहला, आज घाटी की जनसंख्या में 98 प्रतिशत संख्या मुस्लिमों की है। यदि इसी अनुपात में मुस्लिमों की जगह हिंदू-सिख-बौद्ध आबादी होती तो क्या घाटी की स्थिति यही होती ? दूसरा, यदि महाराजा हरि सिंह के विरुद्ध शेख अब्दुल्ला और अन्य मुस्लिम नेताओं का विरोध सामंतवाद, शोषण और सांप्रदायिकता के खिलाफ था, तो अभीतक घाटी में खूनी संघर्ष क्यों चल रहा है ? तीसरा, जो गालियां महाराजा हरि सिंह को दी जाती थी, क्या उन्हीं शब्दों का प्रयोग आज भारत सरकार और शेष भारत के लिए नहीं होता ? चौथा, क्या यह रक्तपात आजादी और मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए है या इसके पीछे वह मजहबी जुनून है, जो वहां के लोगों को ‘काफिरों’ और ‘कुफ्र’ के खिलाफ मरने-मारने की प्रेरणा देता है ? (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और भाजपा के उपाध्यक्ष रहे हैं)