अमानवीय परिस्थितियों और तमाम तरह के दबावों के बीच काम कर रहे पत्रकारों से सच का झंडाबरदार बनने की उम्मीद कैसे की जा सकती है..? हाल ये है कि समाज को सच की नई रोशनी दिखाने वालों पत्रकारों की जिंदगी में ही भयावह अंधेरा पसरा हुआ है!
पारले-जी के एक छोटे पैकेट में लगभग 316 कैलोरी होती है. औसत रूप से स्वस्थ व्यक्ति को एक दिन में लगभग 2500-3000 कैलोरी की जरूरत होती है. अमित पांडेय दिन में दो बार यानी दोपहर के खाने के समय और रात के खाने में पारले-जी के इस छोटे पैकेट से गुजारा कर रहे थे. ऐसा कई हफ्तों तक चला और आखिरकार भूख के कारण उनके कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया और लखनऊ के एक अस्पताल में अमित ने दम तोड़ दिया.

मगर ये अमित पांडेय हैं कौन और आखिर क्यों उन्हें ऐसी मौत मिली? अमित सहारा समूह के टीवी न्यूज चैनल ‘समय’ (उत्तर प्रदेश/उत्तराखंड) में असिस्टेंट प्रोड्यूसर थे और खराब आर्थिक स्थिति के चलते बिस्कुट खाकर जीने को विवश थे. उन्हें तीन महीनों से वेतन नहीं मिला था और स्वाभिमानी अमित को दोस्तों से आर्थिक सहायता मांगना गवारा नहीं था. वो अपनी भूख को नजरअंदाज करते हुए इस उम्मीद में संस्था के लिए काम करते रहे कि कभी तो प्रबंधन वेतन देगा. अमित की मौत के बाद चैनल ने ये बकाया राशि उनके परिजनों को दी.
टीआरपी के शोरगुल में उठती हेडलाइंस और ब्रेकिंग न्यूज की भूलभुलैया में अमित की मौत की खबर कहीं गुम हो गई या यूं कहें कि गैर-जरूरी समझकर नजरअंदाज कर दी गई. ये मौत पूरी भारतीय मीडिया के लिए आंखें खोलने वाली हो सकती थी पर स्थानीय अखबार के पन्नों में एक छोटी खबर बनकर रह गई. मीडिया संस्थानों के संपादकों और प्रबंधन ने भी इससे नजर फेरना ही ठीक समझा- शायद पहली बार नहीं, न ही आखिरी बार. अमित की मौत से मीडिया पर कोई फर्क नहीं पड़ा. सहारा मीडिया के विभिन्न विभागों में कार्यरत हजारों कर्मचारी अब भी अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं. उनका कहना है कि उन्हें कई महीनों से तनख्वाह नहीं मिली है- कुछ बताते हैं कि छह महीनों से वेतन नहीं मिला क्योंकि प्रबंधन कहता है कि उसके पास पूंजी ही नहीं है.

जुलाई, 2012 में महुआ टीवी चैनल के 150 से ज्यादा कर्मचारियों को ह्यूमन रिसोर्स (एचआर) विभाग द्वारा सूचना दी जाती है कि चैनल के मालिक पीके तिवारी ने चैनल को बंद करने का निर्णय लिया है. मगर इस बात पर एचआर ने चुप्पी साध ली कि कर्मचारियों का बकाया वेतन कब दिया जाएगा और चैनल बंद करने के हर्जाने के रूप में उन्हें क्या मिलेगा. एक दिन पहले तक वहां सब सामान्य था. इस सूचना को देने के लिए एचआर ने योजनाबद्ध तरीके से इतवार का दिन चुना, क्योंकि सप्ताहांत पर कम ही कर्मचारी काम पर आते हैं, इसलिए उनके विरोध की संभावना भी कम हो जाती है. हालांकि कुछ ही मिनटों में सभी कर्मचारी नोएडा फिल्म सिटी में इकट्ठा होकर चैनल परिसर में विरोध पर बैठ गए और तब तक विरोध प्रदर्शन करने की बात कही जब तक उनके सभी भुगतान मिल न जाए. प्रबंधन ने पुलिस को बुला लिया, पानी की सप्लाई बंद करवा दी, बाउंसरों को बुलाने की भी धमकी दी पर कर्मचारियों पर कोई फर्क नहीं पड़ा. विडंबना देखिए कि ये सब देश के उस मीडिया हब में हो रहा था, जहां देश के लगभग सभी बड़े हिंदी और अंग्रेजी न्यूज चैनलों के दफ्तर हैं. इन चैनलों के वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों से बार-बार निवेदन किया गया कि वो भी इस विरोध का साथ दें पर अपने साथी पत्रकारों के साथ हो रहा ये अन्याय इन चैनलों की टिकर लाइन में चलने वाली खबर में भी नहीं पहुंच सका. ये प्रदर्शन तीन दिनों तक चला जिसके बाद महुआ टीवी प्रबंधन कर्मचारियों की मांगें मानने के लिए विवश हो गया.
फिर अचानक एक दिन, बिना कोई कारण बताए महुआ टीवी के 125 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया जाता है और पूरा भारतीय मीडिया चुप्पी साध लेता है! आज तीन साल बाद भी कई कर्मचारी बेरोजगार हैं तो कईयों ने आजीविका चलाने के लिए पत्रकारिता छोड़कर दूसरा काम शुरू कर दिया है. इन हालातों से जाहिर होता है कि कैसे भारत के मीडियाकर्मियों का एक बड़ा वर्ग अपने काम के साथ न्याय करने के लिए अपने कार्यस्थल पर लगातार आ रही ऐसी विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहा है.

नवंबर 2014 में, एक राष्ट्रीय समाचार चैनल पी7 पर ‘ब्रेकिंग न्यूज’ में ये खबर चलने लगी : ‘वेतन को लेकर हुए विवादों के चलते पी7 न्यूज चैनल हुआ बंद’. ये खबर चैनल के आउटपुट डेस्क के कर्मचारियों के द्वारा चलाई गई थी, जिन्हें पिछले तीन महीनों से तनख्वाह नहीं मिली थी. हालांकि इन कर्मचारियों को निराशा ही हाथ लगी. उन्होंने सोचा था कि उनके विरोध के इस तरीके के बाद साथी मीडियाकर्मियों का सहयोग और सहानुभूति मिलेगी, लोग उनके समर्थन में आगे आएंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. जब तक ये खबर चली चैनल का प्रसारण ‘ऑफ एयर’ हो चुका था. ये खबर सिर्फ दफ्तर के परिसर तक ही सीमित रह गई. इसके बाद कर्मचारियों ने वेतन भुगतान न करने को लेकर प्रबंधन के खिलाफ प्रदर्शन शुरू किया और चैनल निदेशक के केबिन के आगे धरने पर बैठ गए. उनका कहना था कि जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं होतीं वे वहां से नहीं हटेंंगे पर नोएडा पुलिस ने उन्हें वहां से खदेड़ दिया. इन कर्मचारियों ने साथी पत्रकारों और मीडिया के बड़े नामों के सहयोग के लिए ‘जस्टिस फॉर पी7 एम्प्लॉय’ नाम से एक फेसबुक पेज भी बनाया. पर जब पी7 के ये कर्मचारी अपने प्रबंधन से न्याय के लिए लड़ रहे थे, बाकी मीडिया चैनलों और अखबारों ने इस ओर से आंखें मूंद रखी थीं. वाह! अपने पेशे के लिए क्या एकजुटता दिखाई!

यहां अगर आपको ये लगता है असंवैधानिक रूप से बर्खास्त किए जाने, विरोध प्रदर्शन करने के बावजूद भी इन कर्मचारियों को अपने मीडिया के साथियों का समर्थन नहीं मिला, ये मुख्यधारा की खबरों में इसलिए जगह नहीं बना पाए क्योंकि ये किसी नामी ग्रुप के चैनल से नहीं जुड़े थे तो ये गलत है.

16 अगस्त 2013 को नेटवर्क 18 ने अपने 300 कर्मचारियों को कॉस्ट कटिंग यानी खर्च में कटौती के नाम पर नौकरी से निकाल दिया. सीएनएन-आईबीएन में रिपोर्टर, कैमरामैन और तकनीशियन के बतौर काम कर रहे ढेरों कर्मचारियों के लिए ये सदमे की तरह था. इस तरह सामूहिक रूप से लोगों को बर्खास्त करने की खबर जंगल की आग की तरह फेसबुक और ट्विटर पर फैली पर इसके खिलाफ एकजुट होकर आवाज उठाने की बजाय मुख्यधारा के मीडिया ने फिर चुप रहना बेहतर समझा. निकाले गए अधिकतर कर्मचारी वे थे जो कथित रूप से एक समूह विशेष का हिस्सा नहीं थे, जिस वजह से ये ‘कॉस्ट-कटिंग’ का कारण महज बहाना लगता है. चैनल के एचआर विभाग को निकाले जाने वाले नामों की एक सूची दी गई थी और उन्होंने पूरी बेशर्मी दिखाते हुए इस पर अमल भी किया. एचआर ने इन कर्मचारियों को ‘टर्मिनेशन लैटर’ देते हुए दफ्तर से 10 मिनट के अंदर बाहर निकल जाने को कहा था. इस सामूहिक बर्खास्तगी पर उस समय सीएनएन-आईबीएन के एडिटर-इन-चीफ राजदीप सरदेसाई ने ट्वीट कर ये प्रतिक्रिया दी, ‘चोट और दर्द अकेले ही सहने होते हैं. आपको अकेले ही शोक मनाना चाहिए. गुडनाइट…’ उस वक्त आईबीएन-7 के मैनेजिंग एडिटर आशुतोष थे, जिन्होंने बाद में आम आदमी पार्टी जॉइन की, मगर इस बर्खास्तगी पर उनके पास भी मौन के अलावा कोई जवाब नहीं था.
इसके बाद इन निष्कासित कर्मचारियों ने विरोध करने की ठानी और इसके लिए आनन-फानन में ही ‘पत्रकार एकजुटता मंच’ बनाया गया और नोएडा फिल्म सिटी में नेटवर्क 18 के दफ्तर के बाहर विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ. मीडिया के किसी चर्चित, प्रभावशाली व्यक्ति के इनके साथ न आने, यहां तक कि किसी समाचार चैनल द्वारा इस घटनाक्रम को कवर न करने, तवज्जो न देने से एक बार फिर ये साबित हो गया कि कैसे मीडिया अपने ही साथियों के प्रति हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने से मुंह चुराता है! कैसे जरूरत पड़ने पर भी, मीडिया को चलाने वाले अपने ही साथी पत्रकारों और सहकर्मियों के साथ हो रहे शोषण के खिलाफ खामोश रहे!

अलग-अलग समय पर हुईं ये चार घटनाएं, एक ही-सा कारण, मीडिया द्वारा एक समान नजरअंदाजी! क्यों मीडिया में इसके अपने कर्मचारियों-पत्रकारों आदि के साथ हुए इस अन्याय को प्रसारित करने का साहस नहीं है? वो आखिर इतनी सहनशीलता क्यों दिखा रहे हैं? जवाब वरिष्ठ पत्रकार जेपी शुक्ल देते हैं, ‘अधिकतर सभी मीडिया संस्थान, खासकर टीवी चैनलों के मालिक बड़े कॉरपोरेट घराने, रियल एस्टेट या चिट-फंड कंपनियों से जुड़े लोग हैं. मीडिया एक छोटा क्षेत्र है जहां ऊंचे पदों पर बैठे सभी लोग एक-दूसरे को जानते हैं, ऐसे में अपने ही लोगों के खिलाफ कौन रिपोर्ट करेगा?’

यहां एक और विडंबना भी है. अपने साथियों के खिलाफ हो रहे अन्याय पर मौन हो जाने वाला मीडिया किसी ‘आउटसाइडर’ के द्वारा इनकी कार्य-पद्धति पर सवाल उठाने पर बौखला के उसके खिलाफ हो जाता है. नवंबर 2011 में भारतीय प्रेस काउंसिल के तत्कालीन अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने मीडिया पर एक ऐसी ही तीखी टिप्पणी की थी. सामान्य रूप से पूरे मीडिया के बारे में अपनी राय जाहिर करते हुए काटजू ने कहा था कि मीडिया में अधिकांश लोग बहुत ही निम्न स्तर का बौद्धिक कौशल रखते हैं, साथ ही उन्हें अर्थशास्त्र, राजनीति, दर्शन या साहित्य के बारे में बिलकुल भी ज्ञान नहीं है. इस पर और गंभीर होते हुए जस्टिस काटजू ने यहां तक कहा कि भारतीय मीडिया लोगों के हित के लिए काम नहीं करता.

काटजू के इस बयान पर मीडिया के हर धड़े में बौखलाहट देखी गई. भाषा और क्षेत्र के बैरियर को तोड़ते हुए सभी टीवी चैनल एक स्वर में काटजू की निंदा कर रहे थे. ‘काटजू ने हदें पार कीं’ और ‘सठिया गए हैं काटजू’ दो ऐसी हेडलाइंस थीं जो चैनलों पर लगातार चल रहीं थीं. ये निसंदेह एक ऐसी बात थी जहां मीडिया अपनी गलतियों की अवहेलना करते हुए उन पर गर्व का अनुभव कर रहा था.