प्रकृति, पर्यावरण और सेहत के प्रति आज लोग जागरुकता दिखा रहे है। तो कोई आश्चर्य की बात नही है धीरे-धीरे ही सही लोगों के समझ में आने लगा है, कि पर्यावरण से खिलवाड़ वस्तुतः अपने जीवन से खिलवाड़ है। जाहिर है कि ” थिंक ग्लोबली , एक्ट लोकली” यानी सोचों विश्व स्तर पर एवं सुधार की शुरुआत करो अपने स्तर पर की संकल्पना आज मूर्त रुप लेने लगी है। पर्यावरण के प्रति छेड़छाड को लोग अब इतनी सहजता से नहीं लेते है। आज के जागरुक लोग पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करने वाली संस्था या शख्स को अदालत के कठधरे में खीच ले जाते है, ताकि दूसरे लोग पर्यावरण के साथ छेड़छाड का कदम न उठा सके। वस्तुतः 1970 के दशक में पर्यावरण के प्रति जागरुक और उत्साही लोगो ने पश्चिमी देशो मे यह अभियान शुरु किया था, तब यह चिन्ता इस क्षेत्र के वैज्ञानिकों एवं विशेषज्ञों तक ही सीमित थी। आम-जनमानस पर्यावरण शब्द से अनिभिज्ञ था, वही आज के समय में इंसानों की बढ़ती महत्वाकाँक्षाओं के कारण धरती लगातार खोखली होती जा रही है। किन्तु इंसानों को जब प्रकृति ने अपनी विनाशलीला दिखाना शुरु किया तब जाकर इंसान अपनी तन्ननिद्रा से जागा। एक के बाद एक भयावाह प्रकृतिक आपदाएँ उदाहरण के तौर पर देखा जाये तो नेपाल के काठमाँडू में धरासाई होता धराहरा टावर हो या उत्तराखण्ड़ के केदारनाथ में आयी प्रकृतिक आपदा हो। इन सब विनाशकारी लीला के बाद इंसान प्रकृति के प्रति सजग हो गया एंव अपनी प्रवृति के अनुसार प्रकृति के प्रति सहानुभूति एंव जागरुकता दिखाने लगा। नतीजतन प्रकृति को संरक्षित करने वाली संरक्षणवादी लहरें विश्व के हर कोने से उठने लगी। पर्यावरण के हितैषियो का काफिला लगातार बढ़ता जा रहा है, पर्यावरण बचाने का पहला अधिकारिक एंव अन्तर्राष्ट्रीय समर्थन संयुक्त राष्ट्र सरीखी संस्था ने सन 1972 में स्टाकहोम में पहला विश्व पर्यावरण शिखर सम्मेलन अयोजित करके किया। पर्यावरण के हितैषियो को दूसरा नैतिक बल सन 1998 में मिला, जब “वल्ड कमीशन आॅन इन्वायरमेन्ट ” नामक संस्था ने दुनिया मे हवा, भोजन, पानी, आवास, ऊर्ज , आदि के तेजी से गायब होती मौजूदा स्थिति का आकलन करती हुयी खोजपरक पुस्तक प्रकाशित की। अनेकों पड़ावों से होती हुयी यह लहर अब 21 वी सदी में आ पहुची है, जो यह चेतावनी देती है कि अभी नहीं तो कभी नही, अगर तुम अपना संरक्षण करना चाहते हो तो प्रकृति का संरक्षण करना सीखों। अगर पर्यावरण नही बचा तो तुम भी नहीं बचोगें न ही तुम्हारी साँसे बचेंगी, न हवा बचेगी न पानी न ही यह इन्द्रधनुषी अंबर जिसके नीचे खुली हवा में आप साँसे ले सको। यकीनन धरती और पर्यावरण का वजूद खतरे में है। इस ओर विश्व के सभी देश ठोस कदम उठकर एक मंच पर आ रहे है, चाहे पेरिस समझौता हो या देश में चलाया जा रहा स्वच्छ भारत अभियान। सीएफसी जैसी ग्रीन हाउस गैसों के निस्सरण को कम करने, धरती को खतरनाक हद तक गर्म होनें से बचाने, मरुस्थलों के प्रसार को रोकने, लगातार जल के स्त्रोतों के सूखते एंव सिकुड़ते प्रवाह के संरक्षण, जल की खपत में संयम बरतने जैविक विविधता को बचाने, ओजोन परत के संरक्षण, वन्य जीवों के संरक्षण, प्रौधोगिकी हस्तान्तरण, पर्यावरण के संरक्षण के लिए खुली बहस हुयी है। इसके लिए देश मे आडॅ- ईवन, प्रदूषण नियंत्रण, पुराने वाहनों को रिटायर करने संबधी ठोस एंव कारगर कदम उठाये गये है। फिर भी मनुष्य इतना भौतिकतावादी हो गया है कि वह प्रकृति का दोहन लगातार किये जा रहा है। विकास के नशें में मतान्ध होकर लगातार जंगलों को काटकर, भवन निर्माण, कल-कारखाने एंव गगनचुम्बी इमारतें खड़ा कर रहा है, आज के इस आधुनिक जीवनशैली और भागदौड़ भरी दुनियाँ में हम अपनी आने वाले पीढ़ी एंव बच्चों के कल को दाँव पर लगा रहे है। पर्वत जो कि हमारे देश के भाल कहे जाते थे, हमे स्वच्छ वायु एंव अनेकों औषधियाँ प्रदान करते थे। वो भी आज के भौतिकता वादी इंसान रुपी राक्षसों से सुरक्षित नही बच पाये है। ऋषि-मुनि शान्ती एंव तप के लिए पर्वतमाला का रुख करते थे। जहाँ आध्यात्म के साथ-साथ ईश्वरीय सूक्ष्म शक्तियाँ विघमान थी किन्तु आज वहाँ भी मानव के हाथ पहुँच गये है।लगातार हो रहे निर्माणों पहाड़ों को काटकर बनाये जा रहे मालॅ एंव अपनी सुविधा के लिए बनायी जा रही सुरंगों तथा लगातार बढ़ते जा रहे जनसंख्या के धनत्व को पहाड़ रोकने में असक्षम हो रहे है। और स्वयं अपने अस्तित्व के साथ लड़ते हुए केदारनाथ जैसी आपदा को जन्म देते है। इंसान अब भी नही सजग हुआ तो केदारनाथ जैसे भयावाह त्रासदी आती रहेंगी इससे न इंसान बच पायेगा न पर्यावरण। वस्तुतः हम आज उस चौराहे पर खड़े है, ” जहाँ अभी नही तो कभी नही ” विनाश की रफ्तार तेज है एंव हम मन्द। यदि हम चाहते है कि हम भी रहे और पर्यावरण भी तो हमे अपने अन्दर परिर्वतन लाना होगा, नही तो फिर “अभी नही तो कभी नही “।