एक खबर पढ़ रहा था। आप भी पढि़ए। सबकुछ जान जाएंगे। अपना देश, अपना सिस्टम, अपना कानून, अपने रहनुमा, तिकड़म, गुंजाइश …, सबकुछ। खबर है-कड़कडड़ूमा (नई दिल्ली) कोर्ट ने तत्कालीन रेल मंत्री व दिग्गज कांग्रेसी ललित नारायण मिश्र हत्याकांड पर फैसला सुरक्षित रख लिया है। दस नवम्बर को फैसला आएगा। ललित नारायण मिश्र दो जनवरी 1975 को बम ब्लास्ट में घायल हो गए थे। तीन जनवरी को उनकी मौत हो गई थी। उनको समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर बम मारा गया था। सजा सुनाने में 39 साल …! भई, मैं तो हतप्रभ हूं। पता नहीं अपना देश कैसे चल रहा है? हिसाब लगाने बैठा तो परेशान करने वाले कई और तथ्य सामने आए। इन वर्षों में कुल उन्नीस न्यायाधीशों की नजर से यह मुकदमा गुजरा। यह मुकदमा कई शहर व अदालतों में घूमा। कई अभियुक्त और वकीलों की मौत हो चुकी है। सीबीआइ भी नहीं जानती है कि कितने अभियुक्त जिंदा हैं? चार आरोपी 60 की उम्र को पार कर चुके हैं। ये हैं- संतोषानंद अवधूत, सुदेवनंदा अवधूत, रंजन द्विवेदी तथा गोपाल जी। यह शायद सबसे अधिक लम्बा खिंचने वाला मामला है। इस रिकॉर्ड का मतलब? कौन जिम्मेदार है? मैं नहीं जानता कि इस बहुचर्चित मामले में इतनी देर क्यों हुई? लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि यह पूरे सिस्टम से भरोसा डिगा देने के हालात हैं। बेशक, जो देश, जो राज 39 साल में भी अपने खास किरदार या रहनुमा के हत्यारों को अंतिम सजा न दिला सके, वहां आम आदमी की हैसियत क्या होगी? महान भारत की महान जनता की असली बिसात, इस प्रकरण से खुलेआम है। अपने देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी सीबीआइ भी कठघरे में है। वह इस हत्याकांड के रहस्य से परदा नहीं हटा सकी। उसकी जांच के दो निष्कर्ष रहे। और दोनों ही एक-दूसरे को काटते हैं। आनंदमार्गी आरोपित हुए। लेकिन सीबीआइ द्वारा पकड़े गये अरुण कुमार मिश्रा व अरुण कुमार ठाकुर में से एक, चर्चित कांग्रेसी नेता के इशारे पर इस हत्याकांड को अंजाम देने की बात कबूल चुका है। एक हत्याकांड के दो-दो दावेदार? क्या निष्कर्ष निकलेगा? ऐसा कहने वाले ढेर सारे लोग हैं कि जब जांच, कांग्रेसी दिग्गजों की तरफ बढऩे लगी तो इसे दूसरा मोड़ दे दिया गया। आखिर सीआइडी से जांच छीन सीबीआइ को सौंपने की क्या जरूरत थी? बीच के वर्षों में मैथ्यू आयोग भी आया। घटना के दौरान डीपी ओझा समस्तीपुर के एसपी थे। उन पर कार्रवाई हुई। उनको दोषमुक्त भी किया गया। बिहार पुलिस की प्राथमिकी, सीबीआइ की जांच, कोर्ट कार्यवाही …, बड़ी लंबी दास्तान है और आज भी जिंदा यह मुकदमा वस्तुत: इस बात की मुनादी है कि हम बचाव के तिकड़मों या इसकी गुंजाइश को मार नहीं पाए हैं। जगन्नाथ मिश्र, ललित नारायण मिश्र के भाई हैं। बम विस्फोट में वे भी घायल हुए थे। कई दफा बिहार के मुख्यमंत्री रहे। वे गवाह के रूप में कोर्ट में पेश हो चुके हैं। कोर्ट को बता चुके हैं कि वे सीबीआइ की तहकीकात से संतुष्ट नहीं है। खैर, फैसला जो भी हो, यह प्रकरण बहुत मायनों में रहस्य की तरह ही रहेगा। फैसला जिला जज विनोद गोयल को सुनाना है। इसके खिलाफ हाईकोर्ट में अपील होगी। सुप्रीम कोर्ट का स्तर जिंदा है। तो क्या आरोपियों के जिंदा रहते अंतिम सजा की स्थिति नहीं बनेगी? बड़े लोगों से जुड़े मुकदमों में यही होता है।
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