इलेक्ट्रोनिक मीडिया की ख़बरों के पीछे विज्ञापन का अंकगणित कितना प्रभावी है|पिछले दो सालों में पेड न्यूज को लेकर देश भर में बड़ी बहस शुरू हुई थी | स्वर्गीय प्रभाष जोशी की पहल पर उनके कई साथी पत्रकारों ने इस पर काम भी किया , रिपोर्ट भी बनी लेकिन सरकारी स्तर पर इसको रोकने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाये गये | ” पेड न्यूज “, एडवर्टोरियल , जैसे शब्द आज पत्रकारिता में अपनी स्वीकार्यता बना चुके हैं | सरकारी-गैरसरकारी विज्ञापन चैनलों और अख़बारों की जुबान पर ताला लगा चुके हैं और उनकी आँखों पर सरकारी चश्मा चढ़ चुका है | आज मीडिया वही दिखाती है जो सरकार दिखाना चाहती है | सरकारी विज्ञापन कब और किस उद्देश्य से जारी किये जा रहे हैं इस पर राष्ट्रीय बहस की जरुरत है |सरकारी प्रचार और विज्ञापन को लेकर दिशा-निर्देश में चार केंद्रीय बिंदु हैं – यह सरकार की जिम्मेदारियों से जुड़े हुए हों, सीधे-सपाट तरीके से उद्देश्य की पूर्ति करते हों, वस्तुनिष्ठ हों और उन्हें प्रचारित किए जाने की वजह साफ हो, वे पक्षपातपूर्ण या विवादात्मक न हों, किसी पार्टी के राजनीतिक प्रचार का औजार न हों और ऐसी समझदारी से किए जाएं कि वे जनता के पैसों के इस खर्च की न्यायसंगत वजह पेश करते हों।*1
भारत में आज तक पाठकीय संप्रभुता बन ही नहीं पाई. आगे के समय में यह और भी संभव नहीं दिखाई देता है क्योंकि यह वित्तीय मुद्रा व मुद्रा के वर्चस्व का युग है | राजनीति और मुख्यधारा के मीडिया दोनों पर पूंजी का दबाव है | उन्होंने आगे कहा कि पहले जनाधार और कैडर आधारित पार्टियां मुख्यधारा के मीडिया को अपने लिहाज से महत्वहीन मानती थीं | लेकिन जैसे-जैसे समय बदला जनाधार कमजोर हुआ, पार्टियां कैडर विहीनता की स्थिति में आने लगीं, पार्टियां मीडिया के द्वारा छवि निर्माण करने लगीं | पार्टियां मुख्यधारा के मीडिया का इस्तेमाल कर उन पैसिव वोटरों को प्रभावित करने लगीं जो पाठक-दर्शक है | ऐसे में ही पार्टियों और मुख्यधारा के मीडिया का नापाक गठबंधन शुरू हुआ | पत्रकारिता तो नैसर्गिक प्रतिपक्ष है |
लेकिन वर्तमान हालात में पत्रकारिता / मीडिया जो लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाती है उसका चेहरा वही है लेकिन अन्दर का चरित्र बदल चुका है | मीडिया का नैसर्गिक प्रतिपक्ष होने की बात बार-बार बेमानी साबित हो रही है | सत्ता के इशारे पर शीर्षासन करने वाली मीडिया इमेज बनाने और बिगाड़ने के खेल में माहिर हो गयी है | निश्चित रूप से यह विज्ञापन सरकारी घुस है जो सरकारी अजेंडे के मुताबिक खबरों के प्रसारण हेतु मीडिया को दिया गया है |सरकारी विज्ञापन के आंकडें चीख-चीख सारे सवालों के जबाव दे रहे हैं |