हिंदी दिवस पर हिंदी की वास्तविक स्थिति कुछ भिन्न स्वरूप में किसी संयोगवश हिंदी और अंग्रेजी को साथ साथ भ्रमण करते हुए साथ रहने का अवसर मिला.अंग्रेजी जहाँ भारतवर्ष में अपनी गर्वोन्नत ग्रीवा के साथ इतराती हुई चल रही थी,तो संतोषी हिंदी कुछ अवसादग्रस्त दिख रही थी.,अचानक ही कुछ विशिष्ठ स्थानों पर हिंदी आज अपना नाम सुनकर कुछ ठिठकीं .कुछ अजनबी से कुछ साहबी से लगने वाले सजे धजे पंडाल ,तम्बू ,हाल आदि में में उसकी जय जय कार हो रही थी ,पहले तो वह समझ ही नहीं पायी कि आज उल्टी गंगा कैसे बह रही है, कौन सा उत्सव है.परन्तु अचानक ही उसको याद आ गया कि 14 सितम्बर है अतः हिंदी दिवस मनाया जा रहा है .साथ चलती अंग्रेजी ने कुछ व्यंग्यात्मक शैली में दृष्टि उठाई और बोली ,बधाई हो आज तुम्हारा ही दिन है.ये लोग तुम्हारे ही कारण यहाँ एकत्र हुए हैं.तुम्हारी जय जय कार कर रहे हैं तुम्हें अपनाने की कसमें खा रहे हैं.हिंदी कुछ विचार ही नहीं कर पा रही थी कि कैसे प्रतिक्रिया व्यक्त करे ., हिंदी की ख़ुशी अधिक देर नहीं टिक सकी जब अंग्रेजी बोली ज्यादा इतराओ मत ,तुम्हारे साथ इनका प्रेम बस एक दिन का होता है,वो भी आधा अधूरा .अभी देखना ये तुमको अपनाने की कसमें खायेंगें परन्तु उसमें भी मेरा ही असर इन पर दिखेगा, वैसे जय जयकार तो आज ये तुम्हारी करेंगें ,परन्तु उसका क्या, कल को मीडिया में इनकी फोटो दिखानी है न बस इसलिए..अंग्रेजी फिर बहुत जोर से खिलखिलाई और बोली वैसे तुम्हारी याददाश्त है बहुत कमजोर .अरे भई ये एक दिन तो तुमको हर साल ही याद कर लेते हैं ,असलियत में तो तुम्हारे देशवासियों की चहेती तो मैं हूँ ,हूँ तो विदेशी परन्तु इनके दिलो दिमाग पर मैं सदा छाई रहती हूँ. मुझको अपनाकर ये स्वयं को धन्य समझते हैं ,जिसने मुझको पा लिया वो तो स्वयं को बहुत बड़ा समझने लगता है. मेरी कीमत इस देश में इतनी अधिक है,कि अमीर गरीब सब अपनी हैसियत से अधिक मुझको अपनाना चाहते हैं,यहाँ तक कि तुम्हारे नाम की माला जपने वाले और तुम्हारे नाम का खाने वाले अपने बच्चों को मेरी छत्रछाया में भेजते हैं.इनको मुझसे एक तरफा प्यार है कि जो कोई मेरी भाषा में बोलता है उसको बहुत महान और पढ़ा लिखा समझा जाता है,भले ही ज्ञान के नाम पर वो जीरो हो. अब हिंदी को सब ध्यान आगया और उसकी सारी खुशी उड़ गयी.हिंदी कुछ देर के लिए अंग्रेजी से विदा लेकर एकांत में बैठ गयी .इस समय वह बहुत उदास थी ,अब वो अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रही थी.उसको याद आ रहे थे अपने वो दिन जबकि अपने देश में अन्य भाषाओँ के साथ वह खुश थी क्योंकि सम्पूर्ण देश में अधिकांश देशवासियों को वही प्रिय थी.दुर्भाग्य से इन अंग्रेजों ने देश पर कब्ज़ा कर दास बना लिया और इस गुलामी के काल में भारत को आर्थिक ,व्यापारिक तथा तकनीकी रूप से तो कंगाल बना दिया. हिंदी को याद आया वह काला दिन जब फरवरी 1835 में भारतीय संस्कृति के सबसे बड़ा शत्रु लार्ड मैकाले ने ब्रिटिश संसद में अपने विचार व्यक्त करते हुए अपना मन्तव्य स्पष्ट किया ,और कहा कि, मैंने भारत के कोने-कोने की यात्रा की है और मुझे एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं दिखाई दिया, जो भिखारी हो या चोर हो। मैंने इस देश में ऐसी संपन्नता देखी, ऐसे ऊंचे नैतिक मूल्य देखे कि मुझे नहीं लगता कि जब तक हम इस देश की रीढ़ की हड्डी न तोड़ दें, तब तक इस देश को जीत पायेंगे और ये रीढ़ की हड्डी है, इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत, इसके लिए मेरा सुझाव है कि इस देश की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था को इसकी संस्कृति को बदल देना चाहिए। यदि भारतीय यह सोचने लग जाए कि हर वो वस्तु जो विदेशी और अंग्रेजी, उनकी अपनी वस्तु से अधिक श्रेष्ठ और महान है, तो उनका आत्म गौरव और मूल संस्कार नष्ट हो जाएंगे और तब वो वैसे बन जाएंगे जैसा हम उन्हें बनाना चाहते है – एक सच्चा गुलाम राष्ट्र । लार्ड मैकाले ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपनी शिक्षा नीति बनाई, जिसे आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली का आधार बनाया गया ताकि एक मानसिक रूप से गुलाम कौम तैयार किया जा सके, क्योंकि मानसिक गुलामी, शारीरिक गुलामी से बढ़कर होती है। अंग्रेजों को तो यही चाहिए था और उनके स्वप्नों को पूरा करते हुए मैकाले ने ऐसी शिक्षा व्यवस्था लागू की कि भारतीयों की सोच बदल गयी,अपनी संस्कृति और सभ्यता उनको गंवारू और पिछड़ी हुई लगने लगी और अंग्रेजी सभ्यता,अंग्रेजी भाषा उनके मनोमस्तिष्क पर छा गयी. हिंदी की व्यग्रता बढ़ती जा रही थी क्योंकि उसकी समझ में ये नहीं आ रहा था कि जब 1947 में अंग्रेज चले गये तब भी हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में मान्यता क्यों प्रदान नहीं की गयी. गाँधी बापू ने तो कहा था कि आज़ाद भारत में हिंदी को ही अपनाया जाएगा,फिर क्यों व्यवहारिक कठिनाईयों के नाम पर हिंदी को पराया ही बनाये रखा. यहाँ तक कि भारतीय संविधान में 26 जनवरी 1950 को जो संविधान इस देश में लागू हुआ उसके अनुच्छेद 343 के अनुसार तो व्यवस्था ही निर्धारित कर दी गयी कि अगले 15 वर्षों तक अंग्रेजी इस देश में संघ (Union) सरकार की भाषा रहेगी,राज्य सरकारों को भी छूट दे दी गयी कि वो चाहे हिंदी अपनाएं या अंग्रेजी को.अति तो तब हुई जबकि इस घोषणा के बाद भी कि 15 वर्ष पूरा होने पर अर्थात 1965 में एक विधेयक लाकर अंग्रेजी को हटा दिया जाएगा तथा उसके स्थान पर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ को स्थापित किया जायेगा.ऐसा नहीं हुआ और कुछ राज्यों में हुए हिंदी के विरोध के नाम पर हिंदी के साथ धोखा चलता रहा. अब हिंदी को धीरे धीरे अपने ही देश में बेगानी बनने की कहानी समझ में आ रही थी कि संविधान में ही ये भी अनुच्छेद 343 में ये प्रावधान करते हुए तीसरे पैरा ग्राफ में लिखा गया कि भारत के विभिन्न राज्यों में से किसी ने भी हिंदी का विरोध किया तो फिर अंग्रेजी को नहीं हटाया जायेगा | संविधान निर्माताओं ने तो अनुच्छेद 348 में स्पष्ट कर दिया कि भले ही हिन्दुस्तान में सबसे अधिक हिंदी बोली जाती हो परन्तु उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय की भाषा अंग्रेजी ही रहेगी..इस प्रकार अंग्रेजी का आधिपत्य न्यायिक क्षेत्र में छाया रहा. हिंदी को याद आया जब 1968 में तो हिंदी के अरमानों पर चोट करते हुए यही घोषणा कर दी गयी कि यदि एक भी राज्य अंग्रेजी के पक्ष में हुआ ,तो भी अंग्रेजी को ही मान्यता दी जायेगी उसका और उसी का परिणाम है कि भारत के ही राज्य नागालैंड ने अंग्रेजी को ही भाषा घोषित कर दिया. हिंदी को सर्वाधिक शिकायत तो देशवासियों से है जो जन्म हिंदी भाषी परिवार में जन्म लेते और पलते हैं,हिदी उनकी रगों में होती है परन्तु दीवानगी अंग्रेजी के प्रति इतनी अधिक है कि भले ही अंग्रेजी के माध्यम से समझने में कई गुना समय लगे अपनाता अंग्रेजी ही हैं.न जाने ये बात क्यों भूल जाते हैं कि किसी भी राष्ट्र का सम्पूर्ण विकास अपनी भाषा में ही सम्भव है.उपयोगिता की दृष्टि से भी यदि देखा जाय तो संस्कृत को कम्प्यूटर के लिए महत्वपूर्ण माना गया है , आधुनिक युग में भी सभी कार्य हिंदी में संभव है ,परन्तु देशवासियों का अंग्रेजी के प्रति मोह अपरम्पार है.हिंदी की लोकप्रियता का अनुमान तो इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि आज हिंदी धारावाहिक,हिंदी फ़िल्में,हिन्दी फ़िल्मी अभिनेताओं और अभिनेत्रियों विश्व में देखे और सराहे जाते हैं,विदेशी फ़िल्में हिंदी में डब की जाती हैं. परन्तु उदारमना हिंदी देशवासियों की इस विवशता को समझते हुए कि आज केवल न्यायिक ही नहीं प्रशासकीय,प्रतियोगी परीक्षाओं ,किसी भी अच्छी नौकरी के लिए अंग्रेजी के वर्चस्व वाले ही आगे रहते हैं.(अतः अंग्रेजी के पीछे भागना तो उनकी विवशता है,)बुझे मन से उनको क्षमा करने के लिए विवश थी. हिंदी इसी चिंतन मनन में खोयी थी कि क्या भारत में अपनी खोयी प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त कर सकेगी .तो वो इतना ही समझ सकी जब तक कुछ देशभक्त इस अभियान को प्राथमिकता देते हुए उसको राष्ट्र भाषा की मान्यता दिलाते हुए मैकाले के प्रभाव से बाहर नहीं निकलेंगें ,कुछ भी सकारात्मक संभव नहीं. हिंदी जानती है कि उसका दुःख कभी कम नहीं होगा क्योंकि उपरोक्त वर्णित आंकडें सरकारी प्रयासों और मंशाओं को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं.आज जब कि भले ही वह जनसंख्या के दृष्टिकोण से व्यवहार में आने वाली विश्व की दूसरे नम्बर की भाषा है, बस ऐसे ही यदाकदा उसको स्मरण करते हुए उसको सांत्वना दी जायेगी. (प्रदत्त आंकडें साभार नेट से लिए गये हैं.) (वैसे तो ये हिंदी की मनोदशा का चित्रण है जो स्वयं को उपेक्षित अनुभव करते हुए बहुत दुखी है कि अपने ही देश में उसकी दुर्दशा है,परन्तु मैं एक हिंदी प्रेमी होने के नाते इतना अवश्य कहना चाहूंगी कि देशवासियों का दृढ निश्चय हिंदी को पुनः सम्मान दिला सकता है,कुछ अपवाद स्वरूप उदाहरण हमारे यहाँ उपलब्ध हैं,जो विदेश में रहते हुए भी हिंदी की सेवा कर रहे हैं.भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी बाजपेयी , यदि संयुक्त राष्ट्र संघ को अपनी ओजपूर्ण शैली में हिंदी में संबोधित कर सकते हैं,वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी अपने उद्बोधन हिंदी में दे सकते हैं ,प्रतियोगी परीक्षाओं में हिंदी माध्यम से सफलता प्राप्त की जा सकती है तो हिंदी का दुःख दूर क्यों नहीं हो सकता.)