एक अमावस की रात्रि में एक अंधा मित्र अपने किसी मित्र के घर मेहमान था। आधी रात ही उसे वापस विदा होना था। जैसे ही वह घर से विदा होने लगा, उसके मित्रों ने कहा कि साथ में लालटेन लेते जाएं तो अच्छा होगा। रात बहुत अंधेरी है और आपके पास आंखें भी नहीं हैं। उस अंधे आदमी ने हंसकर कहा कि मेरे हाथ में प्रकाश का क्या अर्थ हो सकता है? मैं अंधा हूं, मुझे रात और दिन बराबर हैं। मुझे दिन का सूरज भी वैसा है, रात की अमावस भी वैसी है। मेरे हाथ में प्रकाश का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन मित्र का परिवार मानने को राजी न हुआ। और उन्होंने कहा कि तुम्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन तुम्हारे हाथ में प्रकाश देखकर दूसरे लोग अंधेरे में तुमसे टकराने से बच जाएंगे, इसलिए प्रकाश लेते जाओ। यह तर्क ठीक मालूम हुआ और वह अंधा आदमी हाथ में लालटेन लेकर विदा हुआ। लेकिन दो सौ कदम भी नहीं जा पाया कि कोई उससे टकरा गया। वह बहुत हैरान हुआ, और हंसने लगा, और उसने कहा कि मैं समझता था कि वह तर्क गलत है, आखिर वह बात ठीक ही हो गई। दूसरी तरफ जो आदमी था, उससे कहा कि मेरे भाई, क्या तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता कि मेरे हाथ में लालटेन है? तुम भी क्या अंधे हो? उस टकराने वाले आदमी ने कहा- मैं तो अंधा नहीं हूं, लेकिन आपके हाथ की लालटेन बुझ गई है। अंधे आदमी के हाथ में लालटेन हो, तो यह पता चलना कठिन है कि वह कब बुझ गई है। लेकिन अंधे आदमी को भी एक बात चल जाती है कि कोई उससे टकरा गया है। मनुष्यता मुझे इससे भी ज्यादा अंधी मालूम पड़ती है। हम रोज टकराते हैं, लेकिन हमें यह पता नहीं चलता कि हमारे हाथ का प्रकाश बुझ गया होगा। अंधे हम हैं, यह तो मनुष्य-जाति का पूरा इतिहास कहेगा कि हमारे पास जैसे आंखें नहीं हैं। क्योंकि हम उन्हीं गड्ढों में रोज गिर जाते हैं जिनमें कल भी गिरे थे, और परसों भी, और पीछे भी, और पीछे भी। अंधा होना तो जैसे मनुष्य-जाति का लक्षण माना जा सकता है। लेकिन हमारे हाथ में कुछ लोग प्रकाश भी दे जाते हैं- कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट। इस आशा में कि भला हम अंधे हों, लेकिन कोई हमसे न टकराएगा और प्रकाश दिखाई पड़ता रहेगा। लेकिन रोज हम टकराते हैं, फिर भी हमें यह खयाल पैदा नहीं होता कि हाथ का प्रकाश कहीं बुझ तो नहीं गया है? इस कहानी से इसलिए मैं बात शुरू करना चाहता हूं कि मेरे देखे आदमी के हाथ का प्रकाश बहुत दिन हुए बुझ गया है। और हम बुझे हुए दीये लेकर जीवन में चल रहे हैं। बुझे हुए दीये दीयों के न होने से भी खतरनाक सिद्ध होते हैं। क्योंकि बुझे हुए दीये जिसके हाथ में होते हैं उसे यह खयाल होता है कि मेरे हाथ में प्रकाश है। जिसके हाथ में कोई प्रकाश नहीं है, कोई दीया नहीं है वह संभलकर चलता है; यह सोचकर कि मेरे हाथ में प्रकाश नहीं, रास्ता अंधेरा है और मैं अंधा हूं। लेकिन हमारे हाथ में बुझे हुए दीये हैं। और उन्हीं दीयों को हम अगर जलते हुए दीये समझ रहे हों, तो आदमी का भविष्य बहुत खतरनाक है। मनुष्य के हाथ में धर्म के नाम पर संप्रदायों के बुझे दीयों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। धर्म के नाम पर मनुष्य के हाथ में बुझी हुई किताबों को अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। धर्म के नाम पर परमात्मा तो बिलकुल नहीं है। लेकिन पुरोहित जरूर है, मंदिर हैं, प्रार्थनाएं हैं, और सब बुझी हुई, सब राख, उनमें कोई रोशनी नहीं, कोई प्रकाश नहीं है। इस कहानी से इसलिए मैं बात शुरू करना चाहता हूं कि मेरे देखे आदमी के हाथ का प्रकाश बहुत दिन हुए बुझ गया है। और हम बुझे हुए दीये लेकर जीवन में चल रहे हैं। बुझे हुए दीये दीयों के न होने से भी खतरनाक सिद्ध होते हैं। क्योंकि बुझे हुए दीये जिसके हाथ में होते हैं उसे यह खयाल होता है कि मेरे हाथ में प्रकाश है। जिसके हाथ में कोई प्रकाश नहीं है, कोई दीया नहीं है वह संभलकर चलता है; यह सोचकर कि मेरे हाथ में प्रकाश नहीं, रास्ता अंधेरा है और मैं अंधा हूं। लेकिन हमारे हाथ में बुझे हुए दीये हैं। और उन्हीं दीयों को हम अगर जलते हुए दीये समझ रहे हों, तो आदमी का भविष्य बहुत खतरनाक है। मनुष्य के हाथ में धर्म के नाम पर संप्रदायों के बुझे दीयों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। धर्म के नाम पर मनुष्य के हाथ में बुझी हुई किताबों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। धर्म के नाम पर परमात्मा तो बिलकुल नहीं है। लेकिन पुरोहित जरूर है, मंदिर हैं, प्रार्थनाएं हैं, और सब बुझी हुई, सब राख, उनमें कोई रोशनी नहीं, कोई प्रकाश नहीं है।
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