एक लोकतान्त्रिक देश में लोकतंत्र के चार मुख्य स्तम्भ कहे गए हैं, जो क्रमशः हैं- कार्यपालिका, न्यायपालिका(सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट,जिला अदालतें विधायिका तथा “मीडिया.” यदि लोकतंत्र की चारो शक्तियां एक ही राग अलापने लगें तो राष्ट्र उन्नति नहीं कर सकता, इसीलिए “शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त” को राज्य की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलने के लिए तथा शक्तियों के परस्पर समन्वयन के लिए प्रायः व्याख्यायित किया जाता है. इस सिद्धांत के अनुसार राज्य की तीनो शक्तियों को अलग-अलग तथा सामान स्वतंत्रता प्रदान की जाती हैं जिससे कि यदि शासक भी निरंकुश होना चाहे तो उस पर लगाम कसा जा सके. दुर्भाग्य से भारत में भारत की तीन स्तम्भ तो सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में पहले से हैं और चौथा स्तम्भ सरकार के गुणगान में व्यस्त है, सरकार क्या कहें केवल और केवल प्रधानमंत्री “नरेंद्र दामोदर दस मोदी” जी के गुणगान में व्यस्त है. व्यक्तिवादी मीडिया का होना गणतंत्र के हित में नहीं होता है, एक कुशल शासक को अपने गुणगान सुन कर निरंकुश होने में देर नहीं लगती, मीडिया का काम सरकार की नीतियों पे खुल कर बहस करने का है, क्या गलत है क्या सही है इस पर मंथन करने का काम है न कि प्रधान मंत्री के गुणगान का, पर आज-कल तो मोदी-मोदी के अलावा कुछ और सुनाई नहीं देता. निःसंदेह मोदी जी एक आदर्श प्रधान मंत्री हैं, विदेशी नीतियों में उनकी परिपक्वता जनता भली भांति समझ रही है पर परिणाम आने शेष हैं. जिस तरह पूरी दुनिया में मोदी को दूसरा ओबामा(सिर्फ ओबामा ही नहीं अमेरिका का कोई भी राष्ट्राध्यक्ष दुनिया का सबसे बड़ा डॉन होता है) बनाकर पेश किया जाता है वह कहीं न कहीं हास्यपद लगता है.किसी भी क्षेत्र में हम चाइना या अमेरिका से आगे नहीं हैं और न ही इन राष्ट्रों की कोई मज़बूरी है भारत के सामने झुकने की पर मीडिया में हंगामा कुछ इस तरह का है कि पूरी दुनिया शरणागत है भारतीय प्रधान मंत्री के आगे. दुसरे ग्रह से कुछ विध्वंसकारी शक्तियां आ गयी हैं और हमारे प्रधानमंत्री जी सुपर हीरो हैं बस धरती को विनाशकारी शक्तियों से ये ही बचा सकते हैं. चाटूत्कारिता के लिए पहले राजा-महाराजा लोग दरबारी कवि रखते थे, रखें भी भला क्यों न भारत का विनाश जो करना था पर आज मामला उल्टा है. दरबारी कवि का काम मीडिया कर रही है. सिर्फ मीडिया ही नहीं इंटरनेट, ब्लॉग. फेसबुक, ट्विटर के महारथियों ने अकेले जिम्मेदारी उठाई है मोदी जी के यशगान की वो भी बिलकुल मुफ्त, धन्य हो भारतीय वीरों. साहित्यकारों को क्या कहा जाए उनका तो धर्म ही है, “जिसका खाना-उसका गाना”. निस्पक्ष पत्रकारिता की कमी खलती है. ऐसे पत्रकार हाशिये पर क्यों हैं जिनकी कलम सच्चाई की जुबान बोलती है. कोई युग द्रष्टा पत्रकार या साहित्यकार मिलता क्यों नहीं, कलम वही है जो यथार्थ लिखे, किसी की प्रशंसा करे तो अनुशंसा भी करे. किसी की कमियां देखकर आँख मूँद लेना तो पक्षपात है न? या होण लगी है एक ही राग अलापने की “हर-हर मोदी,घर-घर मोदी की. भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में देश की प्रगति और विकास के लिए राज्य के सभी स्तम्भों का समन्वयन जरूरी है, ईमानदारी जरूरी है. यदि ईमानदारी नहीं तो विकास नहीं. सरकार की उपलब्धियों की प्रशंसा न करके यदि मीडिया सरकार का ध्यान उन क्षेत्रों की तरफ ले जाए जहाँ आज भी गरीबी-भुखमरी और लाचारी है तो कितना बेहतर होगा. शहरों में झुग्गी-झोपडी वालों की सरकार को सुधि नहीं हैं और देश में काशी को टोकियो और रेलवे लाइन पर बुलेट ट्रेन चलाने की बात हो रही है.एक बात समझ से पर है कि बुलेट ट्रेन में सफर कौन करेगा? किसी तरह माध्यम वर्ग के कुछ लोग या धनाढ्य व्यक्ति जो टिकट खरीदने की औकात रखते हैं. निम्नवर्ग का क्या? ये सुविधाएँ तो धर्मशास्त्रों में वर्णित कल्पित स्वर्ग की तरह हैं जहाँ जाने मरने के बाद ही होता है. किस्मत को कोसें, सरकार को या अपने पूर्वजों को जिनकी वजह से आज भी गरीबी से उबार नहीं पा रहे. गरीब, गरीब क्यों है? कहीं न कहीं वजह ये भी है की उसे अमीर होने का मौका ही नहीं मिला. एक गरीब अपना पेट भर ले वही बहुत है मुंगेरी लाल के हसीन सपने देखने की उसकी औकात कहाँ? या तो सरकार अंधी है या निचले तबके को देश का हिस्सा नहीं मानती. वोट लेने का काम बस नेताओं का है पर इनके उत्थान के लिए किसी को फुर्सत नहीं है. हो भी भला क्यों न गरीबी की कुछ तो सजा भुगतनी पड़ती है. एक निवेदन आप सबसे है कि निष्पक्ष लिखें, मीडिया से अनुरोध है की आप बेशक सरकार की उपलब्धियों को जनता तक पहुचाएं पर जनता को ना भूल जाएँ. एक तबका आज भी है जो न हिन्दू है न मुसलमान है, न सिख है और न ईसाई है वो बस गरीब है, हाँ यही उसकी एक मात्र जाति है. १९४७ से लेकर अब तक देश ने लम्बा सफर तय किया है पर इस सफर में हमारे कुछ साथी हमसे बहुत पीछे छूट गए हैं, उन्हें समाज की मुख्य धारा में लाने की कोशिश तो कीजिये. आजादी तो सबके लिए है न? सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, चन्द्र शेखर आजाद, महात्मा गांधी और न जाने कितने अनगिनत नाम जिन्होंने अपना सब कुछ इस देश के लिए कुर्बान किया, भारतीयता के लिए लड़े उनके स्वप्न में आज का गरीब भारत तो नहीं था न ? उनके शहादत को बेकार जाने न दिया जाए तो बेहतर होगा अन्यथा कृतघ्नता का बोझ हमे जीने नहीं देगा. आइये मिलकर प्रयत्न करते हैं अँधेरा मिटाने का….आइये बढ़ाते हैं एक कदम हमारे सपनों के भारत की ओर..फिर से दुहराते हैं “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामय: का राग….भारतीयता का राग!!!
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