लाल-नीली बत्तियों का दुरुपयोग थमने का नाम नहीं ले रहा। यह रुतबा जब कभी मीडिया की सुर्खी बनता है तो कुछ समय के लिए दिखावटी अभियान जरूर चलते हैं, लेकिन इसे रोकने की कोई असरदार पहल कभी नहीं होती। यही कारण है जो इनका दुरुपयोग बढ़ता जा रहा है। जो जनप्रतिनिधि या लोकसेवक रुतबे की बत्तियों के लिए अधिकृत नहीं हैं, वे तो दुरुपयोग कर ही रहे हैं, उनके नाते-रिश्तेदार और ड्राइवर भी इस कुकृत्य में शामिल हो गए हैं। दीपावली के दिन लखनऊ-फैजाबाद राजमार्ग पर दुर्घटना के बाद चर्चा में आयी नीली बत्ती लगी कार का मामला भी ऐसा ही है। यह गाड़ी जिस व्यक्ति की है, वह देवरिया में तैनात सहायक महानिरीक्षक (स्टैम्प) का भाई है, लेकिन नियमों को किनारे रख नीली बत्ती लगाकर कार दौड़ा रहा था। इसी तरह शनिवार को मेरठ में सिवाया टोल प्लाजा पर लाल बत्ती लगी एक कार पकड़ी गई तो पता चला कि दिल्ली निवासी एक युवक व युवती टोल टैक्स व पुलिस की टोकाटोकी से बचने के लिए लाल बत्ती लगाकर घूम रहे थे। कार में शराब की बोतल भी मिली। कार में मेम्बर ऑफ दिल्ली हाई कोर्ट बार एसोसिएशन का स्टिकर लगा था। इन दो मामलों से ही समझा जा सकता है कि लाल-नीली बत्तियों का दुरुपयोग किस स्तर तक पहुंच गया है। दुरुपयोग इसलिए भी बढ़ रहा है क्योंकि इसे रोकने के लिए कभी गंभीरता नहीं दिखाई गई। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट कई बार सख्त टिप्पणियों के साथ रुतबे वाली इन बत्तियों का दुरुपयोग रोकने की नसीहत दे चुके हैं। इसके लिए नियम भी बने हैं कि कौन पदाधिकारी किस बत्ती के लिए अधिकृत है और कौन नहीं। जो अधिकृत हैं उनकी संख्या बहुत ज्यादा नहीं है। यह भी तय है कि लाल-नीली बत्ती और फ्लैशर सिर्फ ड्यूटी के दौरान ही लगाए जा सकते हैं। फिर क्या वजह है कि ये बत्तियां, फ्लैशर व हूटर खुलेआम बाजार में बिकें। इन्हें क्यों नहीं रोका जाता। चौराहों पर तैनात पुलिस जिस तरह दूसरे संदिग्ध वाहनों पर नजर रखती है ठीक उसी तरह बत्ती लगी गाड़ी दिखने पर सतर्क क्यों नहीं हो जाती। क्या यह बेहतर तरीका नहीं होगा कि अधिकृत श्रेणी के लोगों के लिए आवश्यक लाल-नीली बत्तियों का एक मानक तय कर सरकार स्वयं उपलब्ध कराए और खुले बाजार में उनकी बिक्री सख्ती से रोकी जाए। तरीके और भी हो सकते हैं, लेकिन सबसे जरूरी है कि इसकी इच्छाशक्ति हो।