भयानक बाढ़…..जंगली जानवरों का उसमें मर जाना….पानी का सूखना…एक आदमी का दिमाग कौंधना….कुदाल-खुरपी उठाना और बाढ़ से बंजर बनी भूमि को हरा-भरा करना! न…न, ये ‘मदर इंडिया’ जैसी किसी बॉलीवुड फिल्म का क्लाइमेक्स नहीं है. ये एक सच्चाई है जिसे करने के लिए हृदय में धीरज और मन में दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत होती है और ऐसा कर दिखाया है असम के जादव पायेंग ने! जादव पायेंग जिसे इस गणतंत्र की पूर्व-संध्या से पहले तक केवल असम के सीमित हिस्सों के लोग जानते थे, आज विश्व में किसी परिचय का मोहताज नहीं है. पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित 58 वर्षीय पायेंग मिशिंग समुदाय से आते हैं.24 वर्ष की उम्र में भयावह बाढ़ आने के कारण उन्होंने असम में हुए भीषण नुकसान को देखा. इस बाढ़ में जन-जीवन प्रभावित होने के साथ ही कई जंगली जानवर मारे गए. जैसा कि बाढ़ के बाद की स्थिति होती है कि लोगों और सरकारों का ध्यान राहत-सामग्रियों की तरफ होता है, लेकिन पायेंग के दिमाग में पारिस्थितिकी-तंत्र को हुए नुकसान का विचार कौंधा. देश-दुनिया के बारे में अधिक जानकारी न होने के कारण उन्होंने अपने गाँव के बड़े-बुजुर्गों से इस बारे में पूछा. उनकी सलाह के अनुसार पार्यावरण को बचाने के लिए पेयोंग ने पौधारोपण की योजना बनायी.तब उन्होंने अपने घर के समीप ब्रह्मपुत्र नदी पर स्थित एक बंजर द्वीप पर पौधे लगाने शुरू किया. तीन दशक के अथक प्रयासों के बाद आज वो बंजर द्वीप 550 हेक्टेयर की वन भूमि बन चुकी है और कई चीता, हिरण, हाथी और राइनोज़ जैसे जंगली जानवरों का घर बन चुका है. इस वन का नाम पेयोंग के नाम पर रखा गया है. पेयोंग का घरेलू नाम मुलाई है और कठोनी का स्थानीय अर्थ ‘वन’ है.तीस वर्षों की उनकी मेहनत बिल्कुल सपाट नहीं थी. उन्हें कई समस्याओं का भी सामना करना पड़ा. जैसे ही वहाँ के पौधे पेड़ बनने लगे जंगली जानवरों ने वहाँ डेरा डालना शुरू कर दिया. ये जानवर कभी-कभी अपने भोजन के लिए गाँव में घुस आते और लोगों के पालतू जानवरों को उठा ले जाते थे. इससे कई बार ग्रामीणों ने पेयोंग को जंगल नष्ट कर देने को कहा. लेकिन काफी मान-मनौव्वल करने पर आख़िरकार वो ग्रामीणों को मनाने में कामयाब हो जाते थे. हालांकि इस समस्या के समाधान के तौर पर उन्होंने केले के पौधे उगाये और वन में हिरण की संख्या को बढ़ाने की कोशिश की. समय के साथ हिरणों की संख्या बढ़ी और जंगली जानवरों के भोजन की समस्या भी खत्म हुई.